बुधवार, 23 सितंबर 2009

शहीद तेरे नाम से...

बरसों पुरानी बात बताने जा रही हूँ...जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए,उस दिन का एक संस्मरण...

सुबह्का समय ...मेरे दादा-दादी का खेत औरंगाबाद जानेवाले हाईवे को सटके था...दादा दादी अपने बरामदे में शक्ल पे उदासी, ज़ुबाँ पे मौन लिए बैठे हुए थे...

देखा, लकडी के फाटक से गुज़रते हुए, अग्रेज़ी लश्कर के दो अफसर अन्दर की ओर बढे। कई बार यह हो चुका था कि, उन्हें गिरफ्तार करने अँगरेज़ चले आते। दादा जी ने अगवानी की। उन्हें बरामदे में बैठाते हुए, आनेकी वजह पूछी।

जवाब मिला: " हम हमारी एक तुकडी के साथ, अहमदनगर की ओर मार्च कर रहे हैं...सड़क पे आपके फार्म का तखता देखा। लगा, यहाँ शायद कुछ खाने/पीने को मिल जाय..पूरी battalion भूखी है.....क्या यहाँ कुछ खाने पीने का इंतेज़ाम हो सकता है?"

दादा: " हाँ...मेरे पास केलेके बागात हैं, अन्य कुछ फलभी हैं...अपनी सेना को बुला लें...हम से जो बन पायेगा हम करेंगे...."

एक अफसर उठ के सेना को बुलाने गया। एक वहीँ बैठा। दादी ने उन्हें खानेकी मेज़ पे आने के लिए इल्तिजा की। मुर्गियाँ हुआ करती थीं...अंडे भी बनाये गए...

कुछ ही देर में दूसरा अफसर भी आ पहुँचा....दादा ने सेना के लिए फलों की टोकरियाँ भिजवाई....वो सब वहीँ आँगन में बैठ गए।

नाश्तेका समय तो होही रहा था। दादा दादी ने उन दो अफसरों को परोसा और खानेका इसरार किया। दादी, लकडी के चूल्हे पे ब्रेड भी बनाया करतीं...कई क़िस्म के मुरब्बे घर में हमेशा रहते...इतना सारा इंतेज़ाम देख अफसर बड़े ही हैरान और खुश हुए.....
उन में से एक ने कहा :" आपलोग भी तो लें कुछ हमारे साथ...समय भी नाश्ते का है...आप दोनों कुछ उदास तथा परेशान लग रहे हैं..."

दादी बोलीं: " आज हमें माफ़ करें। हमलोग आज दिन भर खाना नही खानेवालें हैं..."
अफसर, दोनों एकसाथ :" खाना नही खानेवालें हैं? लेकिन क्यों? हमारे लिया तो आपने इतना कुछ बना दिया...आप क्यों नही खानेवालें ???"
दादा:" आज भगत सिंह की शहादत का दिन है...चाहता तो बच निकलता..लेकिन जब सजाए मौत किसी और को मिल रही यह देखा तो सामने आ गया...क्या गज़ब जाँबाज़ , दिलेर नौजवान है....हम दोनों पती पत्नी शांती के मार्ग का अनुसरण करते हैं, लेकिन इस युवक को शत शत नमन...अपने बदले किसी औरको मरने नही दिया..आज सच्चाई की जीत हुई है....मरी है तो वो कायरता...सच्चाई ज़िंदा है...जबतक भगत सिंह नाम रहेगा, सच्चाई और बहादुरी का नारा लगेगा...!"

कहते ,कहते, दादा-दादी, दोनों के आँसू निकल पड़े...

दादी ने कहा: " उस माँ को कितना फ़क़्र होगा अपने लाल पे....कि उसकी कोख से ऐसा बेटा पैदा हुआ...वो कोख भी अमर हो गयी...उस बेटे के साथ,साथ..."

दोनों अफ़सर उठ खड़े हो गए। भगत सिंह इस नाम को सलाम किया...और उस दिन कुछ ना खाने का प्रण किया...बाक़ी लश्कर के जवान तबतक खा पी चुके थे...घरसे बिदा होने से पूर्व उन्हों ने हस्तांदोलन के लिए हाथ बढाये....तो दादा बोले:
"आज हस्तांदोलन नही..आज जयहिंद कहेंगे हम...और चाहूँगा,कि, साथ, साथ आप भी वही जवाब दें..."
दोनों अफसरों ने बुलंद आवाज़ में," जयहिंद" कहा। फिर एकबार शीश नमाके , बिना कुछ खाए वहाँ से चल दिए...पर निकलने से पहले कहा,
" आप जैसे लोगों का जज़्बा देख हम उसे भी सलाम करते हैं...जिस दिन ये देश आज़ाद होगा, हम उस दिन आप दोनों को बधाई देने ज़रूर पहुँचेंगे...गर इस देश में तब तक रहे तो..."

और हक़ीक़त यह कि, उन में से एक अफ़सर , १६ अगस्त के दिन बधाई देने हाज़िर हुआ। दादा ने तथा दादी ने तब कहा था," हमें व्यक्तिगत किसी से चिढ नही...संताप नही...लेकिन हमारा जैसा भी टूटा फूटा झोंपडा हो...पर हो हमारा...कोई गैर दस्त अंदाज़ ना रहे ...हम हमारी गरीबी पे भी नाज़ करके जी लेंगे...जिस क़ौम ने इसे लूटा, उसकी गुलामी तो कभी बर्दाश्त नही होगी...."

ऐसी शहादतों को मेरा शत शत नमन....

समाप्त।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

जा, उड़ जारे पंछी ! ६ ( अन्तिम)

जा,उड़ जारे पंछी!६)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

और फिर तेरे सिंगारके दिन शुरू हो गए!!तुझे शोर शराबा पसंद नही था। संगीत जैसे किसी कार्यक्रमका आयोजन नही था,लेकिन इस मौके के लिए मौज़ूम हों, ऐसे कुछ ख़ास गीत CDs मे टेप करा लिए थे...सब पुराने, मीठे, शीतल, कानोको सुहाने लगनेवाले !धीमी आवाजमे वो बजते रहे,लोग आते जाते रहे, खानपान होता रहा। मेरी अपनी कुछ सहेलियों को तथा कुछ रिश्तेदारों को मै वर्षों बाद मिलनेवाली थी!
तेरी हथेलियों तथा पगतलियों पे हीना सजने लगी तो मेरी आँखें झरने लगी। इतनी प्यारी लगी तू के मैंने अपनी आंखों से काजल निकाल तेरे कानके पीछे एक टीका लगा दिया। हर माँ को अपनी बेटी सुंदर लगती है,और हर दुल्हन अपनी-अपनी तौरसे बेहद सुंदर होती है।
हीना लगनेके दूसरे दिन बंगलोर के लिए प्रस्थान। वहाँ के अलग रीतरिवाज...तेरे कपड़े,साडियां,ज़ेवरात,कंगन-चूडियाँ, तेरा सादा-सादा लेकिन मोहक सिंगार....यही मेरी दुनिया बन गयी!!मैंने बिलकुल अलग ढंगसे तेरी चोलियाँ सिलवायीं थी। काफी पुराने बंगाली ढंग का मुझपे असर था। मेरी बालिका वधु!!ये ख़याल जैसा मेरे मनमे आया वैसाही तेरी मासी के मनमेभी आया। तेरी साडियां,चोलियाँ,जेवरात सबकुछ बेहद सराहा गया।
फेरे ख़त्म हुए और मेरे मनका बाँध टूट गया!! अपनी माँ के गले लग मैंने अपने आसूँओ को राहत देदी। उस वक्त की वो तस्वीर....एक माँ,दूसरी माँ के गले लग रो रही थी...एक माँ अपनी बिटियासे कह रही थी...यही तो जगरीत है मेरी बच्ची ...आज तेरी दुनिया तुझसे जुदा हो रही है...सालों पहले मैनेभी अपनी दुनियाको ऐसेही बिदा कर दिया था!....
मेरे वो रिमझिम झरते नयनभी तेरे गालों पे कुछ तलाश रहे थे....बस एक बूँद जो बरसों पहले तूने मुझे भेंट की थी....बस एक बूँद अपनी तर्जनी पे लेके कुछ पल उसे मै तेरी तरफसे मुझे मिला सबसे हसीन तोहफा समझने वाली थी!!सिर्फ़ एक मोती!!पर उस वक्त मै वो तोह्फेसे वंचित रह गयी....
और मुंबई का वो स्वागत समारोह! उसके अगलेही दिन तू फिर बंगलोर, अपनी ससुराल चली गयी। तेरे लौटने के दो दिनों बाद राघव आ गया।
तुम्हारी बिदायीके उन आखरी दो दिनोमे मै लगातार बातें करती रही। कबके भूले बिसरे प्रसंग,किस्से याद करती रही...उस बडबड के पीछे कारण था.....मुझे अपने मनकी अस्वस्थता,चलबिचल, तेरे बिरह्के आँसू, और न जानू क्या कुछ छुपाना था....तुझे हवाई अड्डे पे से लाने गयी थी, तब भी मैंने इसीतरह लगातार बातें की थी,साथ आयी तेरी मासी के पास....अति उत्साह और हजारों शंका कुशंकाएँ....सब मुझे दुनियासे छुपाना था!!
क्या अब तू सच मे पराई हो गयी?तुझे एक किसी इख्तियारसे कुछ कहनेके दिन बीत गए??
"चलो,चलो सामान नीचे ले जाना शुरू करो....!"तेरे पिताकी आवाज़। आख़री वक़त मैंने तेरी ९ वार की कांजीवरम से दो खूबसूरत रजाईयाँ बना डाली!!कमसे तुम दोनों उसे देख तो सकोगे इस बहने, इस्तेमाल तो होंगी...वरना वहाँ पड़े,पड़े उनका क्या हश्र होता??राघव ने ख़रीदी हुई किताबे निकालके इनकी बक्सों मे जगह बना ली। मैंने बादमे सी-मेल से उन किताबोंको भेज देनेका सोंच लिया।
हम सब परिवारवाले तुझे बिदा करने नीचे आ गए। विमान सुबह ४ बजे उडनेवाला था। मुझे सभी ने हवाई अड्डे पे जानेसे रोका। तेरे पिता और भाई गाडीमे बैठे, साथ तू और राघव भी। उस एक मोतीकी चाह अधूरी ही रह गयी...अब तेरा मेरा ये बिरह कितने दिनोका??गाडी चल पडी तो मन बोला, जा मेरे प्यारे पंछी...जा उड़ जा....उड़ जा अपने आसमान मे दूर,दूर, ऊचाईयों तक पोहोंच जा...!लेकिन मेरी चिडिया,जब कभी माँ याद आए,इस घोंसलेमे उडके चली आना...मेरे पंखोंसे अधिक सुरक्षित,शीतल जगह तुझे दुनिया मे दूसरी कोई नही मिलेगी। थक जाए तो विश्राम के लिए चली आना। अब तो हमारे आकाशभी अलग-अलग हो गए हैं...तेरे आकाशमे मुक्त उड़ान भर ले मेरे बच्चे!!पर इस घोंसलेको भुला न देना!!
जब तेरी दुनिया मे सूरज पूरबमे लालिमा बिखेरेगा,तब मेरे यहाँ सूनी-सी शाम ढलेगी...तभी तो लगता है, हमारे आसमान,हमारे क्षितिज अब कितने जुदा हो गए??

समाप्त

4 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

*****


पढ़कर मानो लफ़्ज़ों की मोहताज़ी से बावस्ता हूँ, चुनाँचे आज...फिर, वही..... ओहः ह !

महामंत्री-तस्लीम said...

माँ और बेटी का सम्बंध भी निराला है। यह श्रंखला संबंधों के कई नए आयाम खोल रही है।

vipinkizindagi said...

बहुत अच्छा लिखा है उस के लिए बधाई
एक शेर मेरा ........
वक़्त की रेत पे कुछ एसे निशान छोड़ते चलो,
की याद करे ज़माना, कुछ एसी यादे छोड़ते चलो,

Rachna Singh said...

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जा, उड़ जारे पंछी ! ५



(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

मै घरके बीछो बीछ खडी रहती और नज़र हर ओर तेज़ीसे घुमाती। रसोई मे नारंगी रंगका लैंप शेड..और दीवारपे नीला कैंडल स्टैंड...कोनेमे ये चार फ्रेम्स, सिरेमिक टाइल पे लगी ये खूंटी रसोई के सिंक के पास...पीले तथा केसरिया रंगों की पैरपोंछ्नियाँ... ...!!और,हाँ...स्नानगृह भी बैठक जितनाही सुंदर दिखना चाहिए....!!तो ये यहाँ बड़े तौलिये, ये छोटे तौलिये, यहाँ भी छोटी-छोटी फ्रेम्स ...नयी साबुनदानी लानी होगी...कांचके शेल्फ पे फूलदान...स्नेहल से कहूंगी ...उसके नीचेवाले फूलवाले को ख़बर देनेके लिए....रोज़ लम्बी टहनी के फ़ूल ला देगा , कभी पीले गुलाब,कभी सेवंती,साथ ताज़े पत्ते भी...
तेरी चोलियाँ सीने के लिए मै नासिक से पुराना दर्जी बुलानेवाली थी...आके यहीं रहने वाला था...बक्सों मेसे सारी-के सारी किनारे बाहर निकाली गयी,लेसेस निकली, जालियाँ निकली, ज़रीके फूल निकले....हाँ, इस चोलीपे ये लेस अच्छी लगेगी,इसवालेपे ये किनार...इसकी बाहें इसतरह सिलवानी हैं...पीठपे ये ज़र सजेगी....ओहो!!राघव के लिए अभी चूडीदार पजामे-कुरते लाने हैं !!
दिनभर का सब ब्योरा मै तुझे इ-मेल करती। एक दिन तूने लिखा,माँ अब बसभी करो तैय्यारियाँ....!!
और मैंने जवाब मे लिखा, मुझे हर एक पल पूरी तरह जीना है..."इस पलकी छाओं मे उस पलका डेरा है, ये पल उजाला है, बाकी अँधेरा है,ये पल गँवाना ना, ये पलही तेरा है,जीनेवाले सोंच ले,यही वक्त है,करले तू पूरी आरज़ू ...
आगेभी जाने ना तू, पीछेभी जाने ना तू, जोभी है, बस यही एक पल है"!(पंक्तियों का सिलसिला ग़लत हो सकता है!)
सच, मेरी ज़िंदगी के वो स्वर्णिम क्षण थे...कभी ना लौटके आनेवाले लम्हें...भरपूर आनंद उठाना मुझे उन सब लम्हों का...!
अरे, तुझे कौनसी फ्रेम्स अच्छी लगेंगी सबसे अधिक?? मै पूछ ही लेती!!तू कहती सारीके सारी...लेकिन ले नही जा पाउंगी...!!
उफ़!!चूडियाँ औरबिंदी लानी है है ना अभी!!
और अचानक से किसी संथ क्षण, मनमे ख़याल झाँक जाता...पगली!!होशमे आ...संभाल अपनेआपको...सावध हो जा...चुटकी बजातेही ये दिन ख़त्म हो जायेंगे...फिर इसी जगह खडी रहके तू इन सजी दीवारों को भरी हुई आंखों से निहारेगी...चुम्हलाया हुआ घर सवारेगी-संभालेगी..वोभी कुछ ही दिनों के लिए....इनका सेवा निवृत्ती का समय बस आनेही वाला है...बंजारे अपने आख़री मकाम के लिए चल देंगे....!इनके DGPke हैसियतसे जो सेवा काल रहा, उसमे मैंने कुछ एहेम ज़िम्मेदारियाँ निभानी थी..एक तो तेरी शादी, जिसमे गलतीसे भी किसीको आमंत्रित ना करना बेहद बड़ी भूल होगी...IPS अफसरों के एसोसिशन की अध्यक्षा की तौरपे मैंने, हर स्तर के अफ्सरानके पत्नियोंको अपने संस्मरण लिख भेजनेके लिए आमंत्रित किया था। इस तरह का ये पहला अवसर था,जब अफसरों की अर्धान्गिनियाँ अपने संस्मरण लिखनेवाली थीं...और वो प्रकाशित होनेवाले थे.." WE THE WIVES".द्विभाषिक किताबकी मराठी आवृत्ती का नाम था,"सांग मना, ऐक मना"। हिन्दीमे," कह मेरे दिल,सुन मेरे दिल"। साथ ही मेरी किताबोंका प्रकाशन होना था। नासिक मे स्टेट पोलिस गेम्सका आयोजन करना था। और उतनाही एहेम काम...पुनेमे रहनेके लिए फ्लैट खोजना था।
जैसा मैंने सोंचा था, वैसाही हुआ। एक तूफानकी तरह तुम दोनों आए, साथ मेहमान भी आए, घर भर गया, शादीका घर, शादीकी जल्दबाजी!!सारा खाना मैही बनाती...फूल सजते...चादरें रोज़ नयी बिछाती....बैठक मेभी हर रोज़ नयी साज-सज्जा करती। ये मौक़ा फिर न आना था....
क्रमशः।

1 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

बाँधे हुये है..अब तक !
फिर, आगे ?