मंगलवार, 10 मार्च 2009

रोई ऑंखें मगर.....२

Friday, June 6, 2008

रोई आँखे मगर....2

दादा मेरे साथ खूब खेला करते थे। वो मेरे पीछे दौड़ते और हम दोनों आँखमिचौली खेलते। मैं पेडोंपे चढ़ जाया करती और वो हार मान लेते। सायकल चलाना उन्ह्नोनेही मुझे सिखाया और बादमे कारभी.....और सिखाई वक्त की पाबंदी, बडोंकी इज्ज़त करना और हमेशा सच बोलना, निडरता से सच बोलना। बाकी घरवालोनेभी यही सीख दी। हम गलतीभी कर बैठते, लेकिन उसे स्वीकार लेते तो डांट नही बल्कि पीठ्पे थप-थपाहट मिलती। निडरता से सच बोलनेकी सीखपे चलना मुश्किल था। कई बार क़दम डगमगा जाते, झूठ बोलके जान बचा लेनेका मोह होता, लेकिन हमेशा दादा याद आते,उनके बोल याद आते की जब कोई इंसान मृत्युशय्या पे हो तो उसके दिलमे कोई पश्चाताप नही होना चाहिए।
इसी बातपे मुझे बचपन की एक घटना याद आयी। हम तीनो भाई-बेहेन स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से स्कूल आया जाया करते थे। एक दिन माँ ने हिदायत देके स्कूल भेजा मुझे की शामको शायद हमारी कार शेहेर आयेगी। अगर एक विशिष्ट जगह्पे कार दिखे तो छोटे भाईको बस स्टेशन पे ठीक से देख लेना तथा उसे साथ लेके आना। ना जाने क्यों, उस भीड़ भरी जगह्पे मैंने बोहोतही सरसरी तौरसे नज़र दौडाई और कारमे बैठ के घर आ गयी। माँ के पूछ्नेपे कहा की, मैंने तो ठीकसे देखा, राजू वहाँ नही था। माँ को शंका हुई की कही बेटा किसी बुरी संगतमे तो नही पड़ गया??जब देर शाम भाई बस से घर लौटा तो माँ ने उससे सवाल किया की वो शाम को बस स्टेशन पे नही था ...कहाँ गया था??उसने बताया की, वो तो बस स्टेशन पे ही था। माने उसे चांटा लगाया। उसने मासे कहा,"माँ तुम चाहो तो मुझे मारो,लेकिन मैं वहीं पे था...बल्कि मैंने दीदी को देखाभी....इससे पहले की मैं उनतक जाता,वो चली गयी...."। माने मेरी तरफ़ मुखातिब होके कहा,"तुमने राजूको ठीकसे देखा था?"
मेरी निगाहें झुक गयी। मुझे अपने आपपे बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई। आजभी जब वो घटना याद आती है तो मेरी आँखें भर आती हैं।
एकबार दादा से रूठ्के मैं पैदलही स्कूल निकल पडी। तब मेरी उम्र होगी कुछ दस- ग्यारह सालकी। स्कूल तकरीबन आठ किलोमीटर दूर था। दादाजीने अपनी सायकल उठायी और मेरे साथ-साथ चलने लगे। क़रीब दो-तीन किलोमीटर चल चुके तो एक बस आयी। बसका चालक दादाजीको जानता था। उसने मुझसे बसमे बैठने के लिए खूब मनुहार की ,लेकिन मैं थी की रोती जा रही थी,और अपनी ज़िद्पे अडी हुई थी। अन्तमे दादाजीने उसे जानेके लिए कह दिया। मैं पैदल चलकेही स्कूल पोहोंची।जब शाम मे स्कूल छूटी तो मैं बस स्टेशन के लिए निकल पडी। थोडीही दूरपे एक छोटी-सी पुलियापर दादाजी मेरा इंतज़ार कर रहे थे!!दिनभर के भूके-प्यासे!!बोले,"अब तुझे बसमे बिठाके मैं सायकल से घर आऊँगा।" मुझे आजतक इस बातपे ग्लानी होती है....काश.....काश,मैं इतनी जिद्दी ना बनी होती....!
अपूर्ण

2 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

अच्छा लग रहा है आपके संस्मरण सुनना/ जारी रहें.

mamta said...

कभी-कभी जिंदगी मे ऐसा होता है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. Friday, April 3, 2009
    दिल के कोने में कोई शाम जगमगाती है
    डूबती धूप किनारों पे मुस्कुराती है
    हवा के साथ बिखरती लट छू के
    हसरत भी साथ गुनगुनाती है

    बर्फ हो जाती है बहती नदी अचानक से
    रात खामोशी से तन्हाई निगल जाती है
    कहीं दूर सिसकती किसी घुंघरू की हँसी
    गर्म लोहे सी मेरे दिल में पिघल जाती है

    एक पीली किरण की जादूगरी
    नजर की ताब, तारुफ़ को बदल जाती है
    आँख की आग बुझाने को उतरे आंसू से
    ठसक पांव की दलदल में फिसल जाती है

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  2. शमा जी
    आपको यह नज्म छू सकी ,यह अच्छा लगा । किंतु घुंघरू शब्द ने आहत किया ,मुझे खेद है ।
    मेरा आशय है कि एक हंसता नाचता मस्त जीवन पीछे छूट गया है । उसकी प्रति ध्वनी हृदय में गूंजती है ,तो बहुत पीड़ा होती है ।
    आपने किस सन्दर्भ में घुंघरू को लिया है ,यह तो मुझे नही पता ,किंतु आपको पीड़ा हुई , में खेद व्यक्त करता हूँ । यदि आप कोई अन्य शब्द सुझाएँ । धन्यवाद

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  3. ghoongharuon kee najane kitnee chhamak kitnee mahfil se laut aatee hai .
    mere soone se biyavan me magar koyee payal see goonj jatee hai .

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