बुधवार, 23 सितंबर 2009

शहीद तेरे नाम से...

बरसों पुरानी बात बताने जा रही हूँ...जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए,उस दिन का एक संस्मरण...

सुबह्का समय ...मेरे दादा-दादी का खेत औरंगाबाद जानेवाले हाईवे को सटके था...दादा दादी अपने बरामदे में शक्ल पे उदासी, ज़ुबाँ पे मौन लिए बैठे हुए थे...

देखा, लकडी के फाटक से गुज़रते हुए, अग्रेज़ी लश्कर के दो अफसर अन्दर की ओर बढे। कई बार यह हो चुका था कि, उन्हें गिरफ्तार करने अँगरेज़ चले आते। दादा जी ने अगवानी की। उन्हें बरामदे में बैठाते हुए, आनेकी वजह पूछी।

जवाब मिला: " हम हमारी एक तुकडी के साथ, अहमदनगर की ओर मार्च कर रहे हैं...सड़क पे आपके फार्म का तखता देखा। लगा, यहाँ शायद कुछ खाने/पीने को मिल जाय..पूरी battalion भूखी है.....क्या यहाँ कुछ खाने पीने का इंतेज़ाम हो सकता है?"

दादा: " हाँ...मेरे पास केलेके बागात हैं, अन्य कुछ फलभी हैं...अपनी सेना को बुला लें...हम से जो बन पायेगा हम करेंगे...."

एक अफसर उठ के सेना को बुलाने गया। एक वहीँ बैठा। दादी ने उन्हें खानेकी मेज़ पे आने के लिए इल्तिजा की। मुर्गियाँ हुआ करती थीं...अंडे भी बनाये गए...

कुछ ही देर में दूसरा अफसर भी आ पहुँचा....दादा ने सेना के लिए फलों की टोकरियाँ भिजवाई....वो सब वहीँ आँगन में बैठ गए।

नाश्तेका समय तो होही रहा था। दादा दादी ने उन दो अफसरों को परोसा और खानेका इसरार किया। दादी, लकडी के चूल्हे पे ब्रेड भी बनाया करतीं...कई क़िस्म के मुरब्बे घर में हमेशा रहते...इतना सारा इंतेज़ाम देख अफसर बड़े ही हैरान और खुश हुए.....
उन में से एक ने कहा :" आपलोग भी तो लें कुछ हमारे साथ...समय भी नाश्ते का है...आप दोनों कुछ उदास तथा परेशान लग रहे हैं..."

दादी बोलीं: " आज हमें माफ़ करें। हमलोग आज दिन भर खाना नही खानेवालें हैं..."
अफसर, दोनों एकसाथ :" खाना नही खानेवालें हैं? लेकिन क्यों? हमारे लिया तो आपने इतना कुछ बना दिया...आप क्यों नही खानेवालें ???"
दादा:" आज भगत सिंह की शहादत का दिन है...चाहता तो बच निकलता..लेकिन जब सजाए मौत किसी और को मिल रही यह देखा तो सामने आ गया...क्या गज़ब जाँबाज़ , दिलेर नौजवान है....हम दोनों पती पत्नी शांती के मार्ग का अनुसरण करते हैं, लेकिन इस युवक को शत शत नमन...अपने बदले किसी औरको मरने नही दिया..आज सच्चाई की जीत हुई है....मरी है तो वो कायरता...सच्चाई ज़िंदा है...जबतक भगत सिंह नाम रहेगा, सच्चाई और बहादुरी का नारा लगेगा...!"

कहते ,कहते, दादा-दादी, दोनों के आँसू निकल पड़े...

दादी ने कहा: " उस माँ को कितना फ़क़्र होगा अपने लाल पे....कि उसकी कोख से ऐसा बेटा पैदा हुआ...वो कोख भी अमर हो गयी...उस बेटे के साथ,साथ..."

दोनों अफ़सर उठ खड़े हो गए। भगत सिंह इस नाम को सलाम किया...और उस दिन कुछ ना खाने का प्रण किया...बाक़ी लश्कर के जवान तबतक खा पी चुके थे...घरसे बिदा होने से पूर्व उन्हों ने हस्तांदोलन के लिए हाथ बढाये....तो दादा बोले:
"आज हस्तांदोलन नही..आज जयहिंद कहेंगे हम...और चाहूँगा,कि, साथ, साथ आप भी वही जवाब दें..."
दोनों अफसरों ने बुलंद आवाज़ में," जयहिंद" कहा। फिर एकबार शीश नमाके , बिना कुछ खाए वहाँ से चल दिए...पर निकलने से पहले कहा,
" आप जैसे लोगों का जज़्बा देख हम उसे भी सलाम करते हैं...जिस दिन ये देश आज़ाद होगा, हम उस दिन आप दोनों को बधाई देने ज़रूर पहुँचेंगे...गर इस देश में तब तक रहे तो..."

और हक़ीक़त यह कि, उन में से एक अफ़सर , १६ अगस्त के दिन बधाई देने हाज़िर हुआ। दादा ने तथा दादी ने तब कहा था," हमें व्यक्तिगत किसी से चिढ नही...संताप नही...लेकिन हमारा जैसा भी टूटा फूटा झोंपडा हो...पर हो हमारा...कोई गैर दस्त अंदाज़ ना रहे ...हम हमारी गरीबी पे भी नाज़ करके जी लेंगे...जिस क़ौम ने इसे लूटा, उसकी गुलामी तो कभी बर्दाश्त नही होगी...."

ऐसी शहादतों को मेरा शत शत नमन....

समाप्त।

शनिवार, 12 सितंबर 2009

जा, उड़ जारे पंछी ! ६ ( अन्तिम)

जा,उड़ जारे पंछी!६)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

और फिर तेरे सिंगारके दिन शुरू हो गए!!तुझे शोर शराबा पसंद नही था। संगीत जैसे किसी कार्यक्रमका आयोजन नही था,लेकिन इस मौके के लिए मौज़ूम हों, ऐसे कुछ ख़ास गीत CDs मे टेप करा लिए थे...सब पुराने, मीठे, शीतल, कानोको सुहाने लगनेवाले !धीमी आवाजमे वो बजते रहे,लोग आते जाते रहे, खानपान होता रहा। मेरी अपनी कुछ सहेलियों को तथा कुछ रिश्तेदारों को मै वर्षों बाद मिलनेवाली थी!
तेरी हथेलियों तथा पगतलियों पे हीना सजने लगी तो मेरी आँखें झरने लगी। इतनी प्यारी लगी तू के मैंने अपनी आंखों से काजल निकाल तेरे कानके पीछे एक टीका लगा दिया। हर माँ को अपनी बेटी सुंदर लगती है,और हर दुल्हन अपनी-अपनी तौरसे बेहद सुंदर होती है।
हीना लगनेके दूसरे दिन बंगलोर के लिए प्रस्थान। वहाँ के अलग रीतरिवाज...तेरे कपड़े,साडियां,ज़ेवरात,कंगन-चूडियाँ, तेरा सादा-सादा लेकिन मोहक सिंगार....यही मेरी दुनिया बन गयी!!मैंने बिलकुल अलग ढंगसे तेरी चोलियाँ सिलवायीं थी। काफी पुराने बंगाली ढंग का मुझपे असर था। मेरी बालिका वधु!!ये ख़याल जैसा मेरे मनमे आया वैसाही तेरी मासी के मनमेभी आया। तेरी साडियां,चोलियाँ,जेवरात सबकुछ बेहद सराहा गया।
फेरे ख़त्म हुए और मेरे मनका बाँध टूट गया!! अपनी माँ के गले लग मैंने अपने आसूँओ को राहत देदी। उस वक्त की वो तस्वीर....एक माँ,दूसरी माँ के गले लग रो रही थी...एक माँ अपनी बिटियासे कह रही थी...यही तो जगरीत है मेरी बच्ची ...आज तेरी दुनिया तुझसे जुदा हो रही है...सालों पहले मैनेभी अपनी दुनियाको ऐसेही बिदा कर दिया था!....
मेरे वो रिमझिम झरते नयनभी तेरे गालों पे कुछ तलाश रहे थे....बस एक बूँद जो बरसों पहले तूने मुझे भेंट की थी....बस एक बूँद अपनी तर्जनी पे लेके कुछ पल उसे मै तेरी तरफसे मुझे मिला सबसे हसीन तोहफा समझने वाली थी!!सिर्फ़ एक मोती!!पर उस वक्त मै वो तोह्फेसे वंचित रह गयी....
और मुंबई का वो स्वागत समारोह! उसके अगलेही दिन तू फिर बंगलोर, अपनी ससुराल चली गयी। तेरे लौटने के दो दिनों बाद राघव आ गया।
तुम्हारी बिदायीके उन आखरी दो दिनोमे मै लगातार बातें करती रही। कबके भूले बिसरे प्रसंग,किस्से याद करती रही...उस बडबड के पीछे कारण था.....मुझे अपने मनकी अस्वस्थता,चलबिचल, तेरे बिरह्के आँसू, और न जानू क्या कुछ छुपाना था....तुझे हवाई अड्डे पे से लाने गयी थी, तब भी मैंने इसीतरह लगातार बातें की थी,साथ आयी तेरी मासी के पास....अति उत्साह और हजारों शंका कुशंकाएँ....सब मुझे दुनियासे छुपाना था!!
क्या अब तू सच मे पराई हो गयी?तुझे एक किसी इख्तियारसे कुछ कहनेके दिन बीत गए??
"चलो,चलो सामान नीचे ले जाना शुरू करो....!"तेरे पिताकी आवाज़। आख़री वक़त मैंने तेरी ९ वार की कांजीवरम से दो खूबसूरत रजाईयाँ बना डाली!!कमसे तुम दोनों उसे देख तो सकोगे इस बहने, इस्तेमाल तो होंगी...वरना वहाँ पड़े,पड़े उनका क्या हश्र होता??राघव ने ख़रीदी हुई किताबे निकालके इनकी बक्सों मे जगह बना ली। मैंने बादमे सी-मेल से उन किताबोंको भेज देनेका सोंच लिया।
हम सब परिवारवाले तुझे बिदा करने नीचे आ गए। विमान सुबह ४ बजे उडनेवाला था। मुझे सभी ने हवाई अड्डे पे जानेसे रोका। तेरे पिता और भाई गाडीमे बैठे, साथ तू और राघव भी। उस एक मोतीकी चाह अधूरी ही रह गयी...अब तेरा मेरा ये बिरह कितने दिनोका??गाडी चल पडी तो मन बोला, जा मेरे प्यारे पंछी...जा उड़ जा....उड़ जा अपने आसमान मे दूर,दूर, ऊचाईयों तक पोहोंच जा...!लेकिन मेरी चिडिया,जब कभी माँ याद आए,इस घोंसलेमे उडके चली आना...मेरे पंखोंसे अधिक सुरक्षित,शीतल जगह तुझे दुनिया मे दूसरी कोई नही मिलेगी। थक जाए तो विश्राम के लिए चली आना। अब तो हमारे आकाशभी अलग-अलग हो गए हैं...तेरे आकाशमे मुक्त उड़ान भर ले मेरे बच्चे!!पर इस घोंसलेको भुला न देना!!
जब तेरी दुनिया मे सूरज पूरबमे लालिमा बिखेरेगा,तब मेरे यहाँ सूनी-सी शाम ढलेगी...तभी तो लगता है, हमारे आसमान,हमारे क्षितिज अब कितने जुदा हो गए??

समाप्त

4 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

*****


पढ़कर मानो लफ़्ज़ों की मोहताज़ी से बावस्ता हूँ, चुनाँचे आज...फिर, वही..... ओहः ह !

महामंत्री-तस्लीम said...

माँ और बेटी का सम्बंध भी निराला है। यह श्रंखला संबंधों के कई नए आयाम खोल रही है।

vipinkizindagi said...

बहुत अच्छा लिखा है उस के लिए बधाई
एक शेर मेरा ........
वक़्त की रेत पे कुछ एसे निशान छोड़ते चलो,
की याद करे ज़माना, कुछ एसी यादे छोड़ते चलो,

Rachna Singh said...

please contact me on rachnasingh@hotmail.com with your email id if you are interested to also write on woman oriented issues
i am blog owner of 3 blogs
http://indianwomanhasarrived2.blogspot.com/
http://daalrotichaawal.blogspot.com/
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/
where many woman continuosly write on issues related to woman
see the blog and contact us
regds

जा, उड़ जारे पंछी ! ५



(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

मै घरके बीछो बीछ खडी रहती और नज़र हर ओर तेज़ीसे घुमाती। रसोई मे नारंगी रंगका लैंप शेड..और दीवारपे नीला कैंडल स्टैंड...कोनेमे ये चार फ्रेम्स, सिरेमिक टाइल पे लगी ये खूंटी रसोई के सिंक के पास...पीले तथा केसरिया रंगों की पैरपोंछ्नियाँ... ...!!और,हाँ...स्नानगृह भी बैठक जितनाही सुंदर दिखना चाहिए....!!तो ये यहाँ बड़े तौलिये, ये छोटे तौलिये, यहाँ भी छोटी-छोटी फ्रेम्स ...नयी साबुनदानी लानी होगी...कांचके शेल्फ पे फूलदान...स्नेहल से कहूंगी ...उसके नीचेवाले फूलवाले को ख़बर देनेके लिए....रोज़ लम्बी टहनी के फ़ूल ला देगा , कभी पीले गुलाब,कभी सेवंती,साथ ताज़े पत्ते भी...
तेरी चोलियाँ सीने के लिए मै नासिक से पुराना दर्जी बुलानेवाली थी...आके यहीं रहने वाला था...बक्सों मेसे सारी-के सारी किनारे बाहर निकाली गयी,लेसेस निकली, जालियाँ निकली, ज़रीके फूल निकले....हाँ, इस चोलीपे ये लेस अच्छी लगेगी,इसवालेपे ये किनार...इसकी बाहें इसतरह सिलवानी हैं...पीठपे ये ज़र सजेगी....ओहो!!राघव के लिए अभी चूडीदार पजामे-कुरते लाने हैं !!
दिनभर का सब ब्योरा मै तुझे इ-मेल करती। एक दिन तूने लिखा,माँ अब बसभी करो तैय्यारियाँ....!!
और मैंने जवाब मे लिखा, मुझे हर एक पल पूरी तरह जीना है..."इस पलकी छाओं मे उस पलका डेरा है, ये पल उजाला है, बाकी अँधेरा है,ये पल गँवाना ना, ये पलही तेरा है,जीनेवाले सोंच ले,यही वक्त है,करले तू पूरी आरज़ू ...
आगेभी जाने ना तू, पीछेभी जाने ना तू, जोभी है, बस यही एक पल है"!(पंक्तियों का सिलसिला ग़लत हो सकता है!)
सच, मेरी ज़िंदगी के वो स्वर्णिम क्षण थे...कभी ना लौटके आनेवाले लम्हें...भरपूर आनंद उठाना मुझे उन सब लम्हों का...!
अरे, तुझे कौनसी फ्रेम्स अच्छी लगेंगी सबसे अधिक?? मै पूछ ही लेती!!तू कहती सारीके सारी...लेकिन ले नही जा पाउंगी...!!
उफ़!!चूडियाँ औरबिंदी लानी है है ना अभी!!
और अचानक से किसी संथ क्षण, मनमे ख़याल झाँक जाता...पगली!!होशमे आ...संभाल अपनेआपको...सावध हो जा...चुटकी बजातेही ये दिन ख़त्म हो जायेंगे...फिर इसी जगह खडी रहके तू इन सजी दीवारों को भरी हुई आंखों से निहारेगी...चुम्हलाया हुआ घर सवारेगी-संभालेगी..वोभी कुछ ही दिनों के लिए....इनका सेवा निवृत्ती का समय बस आनेही वाला है...बंजारे अपने आख़री मकाम के लिए चल देंगे....!इनके DGPke हैसियतसे जो सेवा काल रहा, उसमे मैंने कुछ एहेम ज़िम्मेदारियाँ निभानी थी..एक तो तेरी शादी, जिसमे गलतीसे भी किसीको आमंत्रित ना करना बेहद बड़ी भूल होगी...IPS अफसरों के एसोसिशन की अध्यक्षा की तौरपे मैंने, हर स्तर के अफ्सरानके पत्नियोंको अपने संस्मरण लिख भेजनेके लिए आमंत्रित किया था। इस तरह का ये पहला अवसर था,जब अफसरों की अर्धान्गिनियाँ अपने संस्मरण लिखनेवाली थीं...और वो प्रकाशित होनेवाले थे.." WE THE WIVES".द्विभाषिक किताबकी मराठी आवृत्ती का नाम था,"सांग मना, ऐक मना"। हिन्दीमे," कह मेरे दिल,सुन मेरे दिल"। साथ ही मेरी किताबोंका प्रकाशन होना था। नासिक मे स्टेट पोलिस गेम्सका आयोजन करना था। और उतनाही एहेम काम...पुनेमे रहनेके लिए फ्लैट खोजना था।
जैसा मैंने सोंचा था, वैसाही हुआ। एक तूफानकी तरह तुम दोनों आए, साथ मेहमान भी आए, घर भर गया, शादीका घर, शादीकी जल्दबाजी!!सारा खाना मैही बनाती...फूल सजते...चादरें रोज़ नयी बिछाती....बैठक मेभी हर रोज़ नयी साज-सज्जा करती। ये मौक़ा फिर न आना था....
क्रमशः।

1 टिप्पणियाँ:

डा० अमर कुमार said...

बाँधे हुये है..अब तक !
फिर, आगे ?

रविवार, 16 अगस्त 2009

जा, उड़ जारे पंछी!४)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संभाषण.)

सितम्बर के माह मे तेरे पिता का महाराष्ट्र के डीजीपी के हैसियतसे बढोत्री हुई। इत्तेफाक़न उस समय मै अस्पतालमे थी और इस खुशीके मौक़े का घरपे रहके आनंद न उठा सकी !पर सपनेभी जो बात मुझे सच न लगती वो बात हो गयी!
हमें सरकारकी ओरसे वही फ्लैट मिला जिसमे हम १० वर्ष पूर्व मुंबई की पोस्टिंग मे रह चुके थे...वही बेहद प्यारे पड़ोसी, जिन्हें मै अपना हिदी कथा संग्रह समर्पित कर चुकी थी!!हमें इस फ्लैट मे रहनेका ७ माह से ज्यादा मौक़ा नही मिलनेवाला था, लेकिन मेरी ख़ुशी की कोई सीमा न थी!!हम पड़ोसियों के दरवाज़े हमेशा एक दूसरेके लिए खुलेही रहा करते थे!

अस्पताल से लौटतेही मैंने अपना साज़ों -सामाँ नए फ्लैट मे सजा लिया। कुल दो दिनही गुज़रे थे कि, एक ख़बर ने मुझे हिला दिया। हमारे पड़ोसी, जो IAS के अफसर थे,और निहायत अच्छे इंसान उन्हें कैंसर का निदान हो गया। पूरे परिवार ने इस बातको बहुत ही बहादुरी से स्वीकारा। उनकी जब शल्य चिकित्छा हुई तब उनके घर लौटने से पहले,मैंने उस घरको भी उसी तरह सजाके रखा,जैसे वो घरभी शादीका हो!!

वे घर आए तो एक बच्चे की तरह खुशी से उछल पड़े !मैंने और उनकी पत्नी, ममता ने मिलके लिफ्ट के आगेकी कॉमन लैंडिंग भी ऐसे सजायी के, आनेवाले को समझ ना आए किस फ्लैट के लिए मुड़ना है! छोटी-सी बैठक, गमले,फूलोंके हार, निरंजन, रंगोली,.....पता नही और क्या कुछ!!उनके घरके लिए मैंने wall पीसेस भी बनाये थे। नेम प्लेट भी एकदम अलग हटके बनायी। कॉमन लैंडिंग मे भी मैंने फ्रेम किए हुए वाल्पीसेस सजा दिए।
ममता ने अपनी माँ की पुरानी ज़रीदार साडियोंको सोफा के दोनों और सजा दिया।

कभी भी इससे पहले नए घरमे समान हिलानेमे मुझे इतनी खुशी नही हुई थी जितनी के तब! सिर्फ़ दिलमे एक कसक थी....रमेशजी का कैंसर!!उन्हें तेरे ब्याह्का कितना अरमान था। ऐसी हालत मेभी वो बंगलौर आनेकी तैयारी कर रहे थे। महारष्ट्र मे विधानसभाका सर्दियोंका सेशन नागपूर मे होता है। वे सीधा वहीँ से आनेवाले थे। हम सोचते क्या हैं और होता क्या है....!वो दोनों हमारे घर तेरी मेहेंदीके समारोह के लिएभी न आ सके!उनका कीमोका सेशन था उस दिन!मुंबई के स्वागत समारोह मेभी आ न सके क्योंकि नागपूर का सेशन एक दिन देरीसे ख़त्म हुआ.....

तेरे ब्याह्के कुछ ही दिनोबाद उनके लिवर का भी ऑपरेशन कराना पडा। आज ठीक एक वर्ष पूर्व उस अत्यन्त बहादुर और नेक इंसान का देहांत हो गया। खैर! उनकी बात चली तो मै कहाँ से कहाँ बह निकली....लौटती हूँ गृहसज्जा की ओर...

घर हर तरहसे,हर क़िस्म से से श्रृंगारित करने लगी मै..... शादीके दिनोमे मेहमान आयेंगे, तू आयेगी, बल्कि तुम दोनों आयोगे..... इस लिहाज़ से घर साफ़- सुंदर दिखना था..... क्या करुँ ,क्या न करूँ....

हाँ ! लिफ्टके प्रवेशद्वारपे जहाँ servant क्वार्टर की ओर सीढीयाँ जाती थी , वहाँ भी परदे लग गए...बीछो-बीछ खूबसूरत-सी दरी डाली गयी...शुभेन्द्र तथा पुन्यश्री ... ममताके दोनों बच्चे , उन्हेभी उतनाही उत्साह था। मेरे भी सरपे एक जुनून सवार था..... तेरे पिता तो नागपूर मे थे...काफ़ी जिम्मेदारियाँ मुझपे आन पडी थी। आमंत्रितों की फेहरिस्त बनाना...हर शेहेरमे किसी एक नज़दीकी दोस्तको अपने हाथोंसे पत्रिका बाँटने की बिनती करना...उसी समय,उनको तोह्फेभी पोहोचा देना...बंगलोर की BSF मेस के कैम्पस मे, किसको कहाँ ठहराना ...किसकी किसके साथ पटेगी ये सब सोंच -विचारके!! जबकी मेस मैंने देखीही नही थी... सब कागज़ के प्लान देखके तय करना था!!

और तेरे आनेका दिन क़रीब आने लगा....जिस दिन तू आयेगी...उस दिन तुम्हारे कमरेमे कौनसा बेड कवर बिछेगा??कौनसे परदे लगेंगे??कौनसा गुलदान,कौनसे फूल??पीले गुलाब, पीली सेवंती, साथ लेडीस लैस...यहाँ सिरामिक का गुलदान,यहाँ,पीतल का,यहाँ ताम्बेका...ये राजस्थानी वंदनवार। कब दिन निकलता और कब डूबता पताही नही चलता।
क्रमश

सोमवार, 3 अगस्त 2009

जा, उड़ जारे पंछी! ३ (अपनी बेटीसे माँ का मूक संवाद)

दिन महीने बीतते गए और तेरी पढाई भी ख़त्म हुई। तुझे अवॉर्ड भी मिला। मुझे बड़ी खुशी हुई। बस उसीके पहले, तेरा शादीके बारेमे वो फ़ोन आया था। तेरे ब्याह्के एक-दो दिनों बाद ई मेल द्वारा मैंने तुझसे पूछा," यहाँसे जो साडियाँ ले गयी थी, उनमेसे ब्याह के समय कौनसी पहनी तूने? और बाल कैसे काढे थे...जूडा बनाया था या की...?"

"अरे माँ, साडी कहाँ से पहेनती? समय कहाँ था इन सब का?? शर्ट और जींस पेही रजिस्ट्रेशन कर लिया।और जूडा क्या बनाना... बस पोनी टेल बाँध ली...."! तेरा सीधा,सरल,बडाही व्यावहारिक जवाब!

सूट केसेस भर-भर के रखी हुई दादी-परदादी के ज़मानेकी वो ज़रीकी किनारे, वो फूल,वो लेसेस, .....और न जाने क्या कुछ...जिनमेसे मै तेरे लिए एक संसार खडा करनेवाली थी...सबसे अलाहिदा एक दुल्हन सजाने वाली थी...सामान समेटते समय फिर एकबार सब बक्सोमे करीनेसे रखा गया, मलमल के कपडेमे लपेटके, नेपथलीन balls डालके.....

कुछ कलावाधीके बाद तूने और राघव ने लिखा कि, तुम दोनोका वैदिक विधीसे विवाह हो, ऐसा उसके घरवाले चाहते हैं। अंतमे तय हुआ कि १५ दिसम्बर, ये आखरी शुभ मुहूर्त था, जो कि, तय किया गया। उसे अभी तक़रीबन ७/८ महीनोका अवधी था। पर मुझमे एक नई जान आ गयी। हर दिन ताज़गी भरा लगने लगा.......

तू मुझे फेहरिस्त बना-बनाके भेजने लगी....माँ, मुझे मेरे घरके लिए तुम्हारे हाथों से बने लैंप शेड चाहियें..., और हाँ,फ्युटन कवर का नाँप भेज रही हूँ...कैसी डिज़ाइन बनाओगी??

परदोंके नाँप आए...मैंने परदे सी लिए...उन्हें बांधनेके लिए क्रोशियेकी लेस बनायी।
" माँ! मै तुम्हारी दीवारोंपेसे मेरे पसंद के वालपीसेस ले जाऊँगी....!(ज़ाहिर था कि वो सब मेरेही हाथों से बने हुए थे)!अच्छा, मेरे लिए टॉप्स खरीद्के रख लेना ,हैण्ड लूम के!....."

मैंने कुछ तो पार्सल से और कुछ आने-जाने वालों के साथ चीज़ें भेजनेका सिलसिला शुरू कर दिया। बिलकुल पारंपारिक, ख़ास हिन्दुस्तानी तौरतरीकों से बनी चीज़ें...कारीगरों के पास जाके ख़रीदी हुई....ये रुची तुझे मेरेसेही मिली थी।

तेरे ब्याह्के मौक़े पे मुझे बहुतेरे लोगों को तोहफे देनेकी हार्दिक इच्छा थी...तेरे पिताके दोस्त तथा उनके परिवारवालों को, उनके सह्कारियोंको , मेरे ससुराल और मायके वालों को, मेरी अपनी सखी सहेलियों को...मैंने कबसे इन बांतों की तैय्यारी शुरू कर रखी थी... समय-समय पे होनेवाली प्रदर्शनियों से कुछ-कुछ खरीद के रख लिया करती थी...हरेक को उसकी पसंद के अनुसार मुझे भेंट देनी थी.....अधिक तर दोस्तों को, अपने हाथोंसे बनी वस्तुएँ देनेकी मेरी चाह थी.....किसीकोभी, कुछभी, होलसेलमे ख़रीद के पकडाना नही था।

कई बरसोंसे मैंने सोनेके सिक्के इकट्ठे किए थे...अपनी कमायीमेसे...उसमेसे तेरे लिए मै ख़ुद डिज़ाइन बनाके गहने घड़वाने लगी, एकदम परंपरागत ...माँ के लिए एक ख़ास तरीक़े का गहना,जेठानीकी कुछ वैसासाही... तेरी मासीके लिए मूंगे और मोटी जडा, कानका...रुनझुन के लिए कानके छोटे,छोटे झुमके...!तेरी सासू माँ ने , तेरे लिए किस क़िस्म की साडियाँ लेनी चाहियें,इसकी एक फेहरिस्त मुझे भेज रखी थी। उनमे सफ़ेद या काला धागा ना हो ये ख़ास हिदायत थी!!फिरभी मै और तेरी मासी बार-बार वही उठा लाते जो नही होना चाहिए था, और मै दौड़ते भागते लौटाने जाया करती...!
क्रमशः

शनिवार, 1 अगस्त 2009

जा, उड़ जारे पंछी! २)

(एक माँ अपनी बेटी के साख एक मूक संवाद)

मेरी लाडली, तुझे पता है तेरा मुझे दिया सबसे बेहतरीन तोहफा कौनसा है, जो मै कभी नही भूल सकती? तुझे कैसे याद होगा? तू सिर्फ़ ३ वर्षकी तो थी। बस कुछ दिन पहलेही स्कूल जाना शुरू हुआ था तेरा। एक दिन स्कूलसे फोन आया के स्कूल बस तुझे लिए बिना निकल गयी है। मै भागी दौड़ी स्कूल पोहोंची। स्कूलके दफ्तर मे तुझे बिठाया गया था। सहमा हुआ -सा चेहरा था तेरा। मैंने तुझे अपने पास लिया तो तेरे गालपे एक आँसू अटका दिखा। मैंने धीरेसे उसे पोंछा तब तूने मुझसे कहा," माँ! मुझे लगा तुम्हे आनेमे अगर देर हो गयी तो मै क्या करुँगी? तब पता नही कहाँ से ये बूँद मेरे गालपे आ गयी?"
जानती है, आज मुझे लगता है, काश! मै उस बूँद को मोती बनाके एक डिबियामे रख सकती! तूने मुझे दिया सबसे पेशकीमती तोहफा था वो!!सहमेसे,भोले, मासूम गालपे बह निकली एक बूँद!
क्या याद करूँ क्या न करूँ??तेरा दसवीं का साल, फिर बारवीं का साल। तुझे हर क़िस्म की किताबें पढ़नेका बेहद शौक़ था/है। साहित्य/वांग्मय मे बोहोत रुची थी तुझे और समझभी। उसीतरह पर्यावरण के बारेमेभी तू बड़ी सतर्क रहती और उसमे रुची तो थीही। वास्तुशात्र भी पसंदका विषय था। हमें लगा, वास्तुशास्त्र करते हुए तू पहले दो विषयोंपे ज़रूर ध्यान दे सकेगी, लेकिन साहित्य करते,करते वास्तुशात्र नही मुमकिन था। अंतमे बारवीं के बाद तूने वास्तुशास्त्र की पढाई शुरू कर दी।
वास्तुशास्त्र के तीसरे सालमे तू थी और तभी तेरा और राघव का परिचय हुआ। उसके पहले मै मनोमन तेरी किसकिस से जोड़ी जमाती रहती, गर तू सुनले तो बड़ा मज़ा आएगा तुझे! तू और राघव एक दूजेके बारेमे संजीदा हो ये सुनके मुझे असीम खुशी हुई। अव्वल तो मै समझी के राघव पूनेकाही लड़का है...फिर पता चला की उसके माता-पिता बंगलौर मे रहते हैं और राघव छात्रावास मे रहके इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। हल्की-सी कसक हुई दिलमे।
हम पूनेमे स्थायिक होनेकी सोंच रहे थे,लेकिन वो कसक चंद पलही रही। मै बोहोत उत्साहित थी। उसमे मुझे मेरी दादीका मिज़ाज मिला था! ना जाने कबसे उन्हों ने अपनी पोतीओं के लिए तरह तरह की चीज़ें बनाना तथा इकट्ठी करना शुरू कर दिया था!!वही मैंने तेरे लिए शुरू कर दिया!!अपने हाथों से चादरे बनाना, किस्म-किस्म के कुशन कवर्स सीना,patchwork करना , अप्लीक करना ,कढाई करना और ना जाने क्या,क्या!खूबसूरत तौलिये इकट्ठे किए, परदे सिये, अपनी सारी कलात्मकता ध्यान मे रख के वोलपीसेस बनाये,सुंदर-सुंदर दरियां इकट्ठी कर ली। हाथके बुने lampshades ,सिरामिक और पीतल तथा ताम्बे के फूलदान......कितनी फेहरिस्त बताऊँ अब!!

दादी-परदादीके ज़मानेकी सब लेसेस, किनारे,कढाई किए हुए पुर्जे, पुराने दुपट्टे, जिनपे खालिस सोनेसे कढाई की गयी थी, जालीदार कुर्तियाँ.....इन सबका इस्तेमाल करके मै तेरे लिए चोलियाँ सीनेवाली थी!!सबसे अलग, सबसे जुदा!!३/४ बक्से ले आयी, उनमे नीचे प्लास्टिक बिछाया, हरेक चीज़की अलग पोटलियाँ बनी, प्लास्टिक के ऊपर नेप्थलीन balls डाले गए, और ये सब रखा गया। बस अब तेरी पढाई ख़त्म होनेका इन्तेज़ार था मुझे! नौकरी तो तुझे मिलनीही थी!!सपनों की दुनियामे मै उड़ने लगी।

और एक दिन पता चला के राघव आगेकी पढाई के लिए अमरीका जानेवाला है और तूभी आगेकी पढाई वहीं करेगी और फिर नौकरीभी वहींपे......मेरे हर सपनेपे पानी फिर गया....आगेकी पढ़ईके लिए पहले राघव और एक सालके बाद तू,इसतरह दोनों चले गए....हम पती- पत्नीकी तरह वो बक्से भी बंजारों की भांती गाँव-गाँव, शेहेर-शेहेर घुमते रहे।
सालभर के बाद तू कुछ दिनोके लिए भारत आयी। हम सब तेरे भावी ससुराल, बंगलोर, हो आए। शादीकी तारीख तय करनेकी भरसक कोशिश की पर योग नही हुआ।

अमरीका जानेके पहलेसेही मुझे तेरे मिज़ाजमे कुछ बदलाव महसूस हुआ था। तू जल्दी-से छोटी-छोटी बातों पे चिड ने लगी थी। तेरी सहनशक्ती कम हो गयी थी। मै गौर कर रही थी पर कुछ कर नही पा रही थी। क्या इसकी वजह मेरी बिगड़ती हुई सहेत थी? तेरे दूर जानेके खायालसे दिमाग मे भरा नैराश्य था? जोभी हो, तू आयी और और उतनीही तेजीसे वापसभी लौट गयी। दोस्त-सहेलियाँ, ख़रीदारी,इन सबमेसे मेरे लिए तेरे पास समय बचाही नही। पहलेकी तरह हम दोनोमे कोई अन्तरंग बातें या गपशप होही नही पाई।
क्रमशः

बुधवार, 29 जुलाई 2009

जा उड़ जारे पंछी ! १

(एक माँ का अपनी दूर रहनेवाली बिटिया से किया मूक संवाद)

याद आ रही है वो संध्या ,जब तेरे पिताने उस शाम golf से लौटके मुझसे कहा,"मानवी जनवरी के९ तारीख को न्यू जर्सी मे राघव के साथ ब्याह कर ले रही है। उसका फ़ोन आया, जब मै golf खेल रहा था।"

मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"

तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तुने कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती।

सन २००३, नवेम्बर की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएं लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....

मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आँखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी.......

तेरे जन्मसेही तेरी भावी ज़िंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊँगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।

छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया। याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता कि कहीँ तुझे किसीकी नज़र न लग जाए...

तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही। अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई।

मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी। आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??

जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की। तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए। ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण । तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया?

ज़िंदगी के इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीँ मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत, जो संजीदगीमे न जानूँ कब तबदील हो गयी....!

अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोँ मे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पोहोंच पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनियाँ तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!