बुधवार, 22 अप्रैल 2009

आंखें थक ना जाएँ...!

आओ, मेरे लाडलों, लौट आओ !!!

ऑंखें थक ना जाएँ !!

(एक माँ के दर्द की कहानी, उसीकी ज़ुबानी)

हमारा कुछ साल पहले , जब मुम्बई से पुणे तबादला हुआ तो मेरी बेटी वास्तुशाश्त्र के दूसरे साल मे पढ़ रही थी । सामान ट्रक मे लदवाकर, जब मै रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुई , तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा मेरे ज़हन मे आज भी ताज़ा है..........

हमने उसे मुम्बई मे ही छोड़ने का निर्णय लिया था। पहले, पी.जी. की हैसियत से और फिर होस्टल मे ....उसे मुम्बई मे रहना बिलकुल भी अच्छा नही लगता था..... वहाँ की भगदड़ ,शोर और मौसम की वजह से, उसे होनेवाली अलर्जी...... इन सभी से वो परेशान रहती.... पर उस वक़्त हमारे पास दूसरा चाराभी नही था।


उसके पिता ने तो ३ माह पहले ही कार्यभार सँभाल लिया था...बेटा, चूँकी १२ वी क्लास मे जा चुका था...अपने पिता के साथ, ग्रामीण पुलिस के अतिथि गृह मे रहने चला गया था..जब,पुणे का मकान खाली हुआ,तो मैंने अपना समान बाँधा...

बिटियासे, घर छोड़ते समय ही बिदा लेली...स्टेशन पे आके,फिर लौटना उसके लिए सम्भव नही था...जब मैंने उसे अलविदा कहा , तो मेरी माँ के अल्फाज़ बिजली की तरह मेरे दिमाग मे कौंध गए....

सालों पूर्व जब वो मेरी पढ़ाई के लिए होस्टल मे छोड़ने आयी थी ,उन्होने अपनी सहेली से कहा था,"अब तो समझो ये हमसे बिदा हो गयी!जो कुछ दिन छुट्टियों मे हमारे पास आया करेगी,बस उतनाही उसका साथ। पढायी समाप्त होते,होते तो इसकी शादीही हो जायेगी....!"


मेरे साथ यही हुआ था.... मैंने उस ख़याल को तुंरत झटक दिया....। "नही अब ऐसा नही होगा..... हमारा शायद वापस मुम्बई तबादला हो!शायद क्यों ,वहीँ होगा!"लेकिन ऐसा नही हुआ.....


वास्तु शास्त्र के कोर्स मे उसे छुट्टियाँ ना के बराबर मिलती थी,और उसका पुणे आनाही नही होता......नाही, किसी ना किसी कारण वश, मैं उस से मिलने जा पाती। देखते ही देखते साल बीत गए। मेरी लाडली वास्तु शास्त्र की पदवी धर हो गयी.....बल्कि, उसका नतीजा आने से पहले ही हमारा,पुणे से नाशिक तबादला हो गया...

नतीजा....हमे हमारे बेटे कोभी पढ़ाई के लिए पीछे छोड़ना पडा। इसी दरमियान मेरी बेटी ने आगे की पढ़ाई के लिए, अमरीका जाने का निर्णय ले लिया...... मेरा दिल तो तभी बैठ गया था!मेरी माँ की बिटिया कमसे कम अपने देश मे तो थी!

नाशिक पहुँच, कुल ५ माह भी नही हुए थे,कि, मेरे पती का,और भी दूर, नागपूर, तबादला हो गया...अब तो,बेटाभी था उस से ,कहीँ और ज़्यादा दूर रह गया....
बिटिया अमेरिका जाने की तैय्यारियोंमे लगी रही........समय का पँछी, कुछ ज़्यादा ही तेज़ रफ़्तार पकड़, उड़ता रहा...


जिस दिन के बारे मै सोचना ही नही चाहती थी...लेकिन उसी की तैय्यारियों मे लगी रही थी...वो दिन भी आही गया.... हम मुम्बई के आन्तर राष्ट्रीय हवायी अड्डे पे खडे थे .....कुछ ही देर मे मेरी लाडली को एक हवायी जहाज़ दूर, मुझ से बोहोत दूर, उड़ा ले जाने वाला था..... उस वक़्त उसकी आँखोंमे भविष्य के सपने थे.... ये सपने सिर्फ अमेरिकामे पढ़ाई करने के नही थे.... उनमे अब उसका भावी हमसफ़र भी शामिल था

उन दोनोकी मुलाक़ात, जब बिटिया तीसरे वर्ष मे थी, तब हुई थी......बिटिया का अमेरिका जानेका निर्णय भी उसीकी कारण था .....मेरा भावी दामाद, भविष्य मे वहीँ नौकरी करनेवाला था

मेरी लाडली के नयनों मे, खुशियाँ चमक रहीँ थीं...., मेरी आँखोंसे, महीनों रोके गए आँसू , रोके नही रूक रहे थे..... वो अपने पँखों से खुले आसमान मे ऊँची उड़ान भरने की चाहत लिए हुई थी..... मैं उसे अपने पँखों मे समेटना चाह रही थी......

मुझे मित्रगण पँछियों का उदहारण दिया करते हैं........ उनके बच्चे कैसे पँख निकलते ही आकाश मे उड़ान लेते हैं.........बल्कि, मादा उन्हें अपने घोंसले से उड्नेके लिए मजबूर करती है....... लेकिन मुझे ये तुलना अधूरी सी लगती है। पँछी बार बार घोंसला बनाते हैं.....,अंडे देते हैं....,उनके बच्चे निकलते हैं.....,लेकिन मेरे तो ये दो ही हैं.... उनके इतने दूर उड़ जाने मे मेरा कराह ना लाज़िम था....

ना समय ना बिटिया...किसी की उड़ान पे मेरा वश नही था..मेरी लाडली सात समंदर पार चली गयी.......उस एक उड़ान ने हमारे क्षितिज ही अलाहिदा कर दिए...ऐसा क्षितिज, जो मेरी पहुँच के परे था...मैंने अपने पंख छाँट, बिटिया को दे दिए थे...उसकी उड़ान पे अब मेरी रोक नही थी...

बिटिया जाने के, दूसरे ही दिन,( हमारे मुम्बई मे रहते ही), मेरे पती के , BSF ( Border security Force) मे, तबादले की संभावना पता चली...और इन्हों ने सहर्ष स्वीकार भी ली...हाथ मे आर्डर आने की देरी भर थी.... इन्हों ने चंडीगड़ की ओर ( जो कि,नया head quarter बन रहा था) , निकल जाना था...और मीलों फ़ैली सरहद की निगहबानी मे लग जाना था...मैंने पीछे समान बाँध , मकान मिलने का इंतज़ार करना था..

पोस्ट नयी निर्माण की गयी थी...तो वहाँ पोहोंच, केवल मकान नही, दफ़्तर के लिए भी जगह की खोज ,कारभार सँभालते हुए करनी थी....सहकर्मियों ने इसे बड़ी ही आसान बात जतलाई थी...मेरा अनुभव और अंतर्मन , कुछ और ही कह रहा था...मै बेहद आशंकित थी...जानती थी...ऐसे अनुभवों से गुज़र चुकी थी, कि, सरकारी मेहेकमे को, लोग अपना मकान किराये पे कभी देना पसंद नही करते...चाहे वो बरसों बंद पडा रहे...क्योंकि, किराये मे अफ़रातफ़री हो नही सकती...!

महाराष्ट्र के बाहर और बाद मे पुलिस सर्विस ही छोड़, परदेस मे नौकरी के झाँसे इन्हें दिखाए जा रहे थे...ऐसे तथा कथित हितैषियों को मै खूब समझ पा रही थी...इनके परे हटने से उस एक व्यक्ती का प्रमोशन क़रीबन दो साल पूर्व हो जाना था...लेकिन, ये बात इन्हें नज़र नही आ रही थी..मेरे सामने सूर्य प्रकाश की तरह साफ़ थी...और मै शत प्रतिशत सही निकली....खैर...!

हम नागपूर लौट आए...सिर्फ़ दोनों.....पति तो हमेशा ही अपने काम मे बेहद व्यस्त.... बड़ा- सा, चार शयन कक्षों वाला मकान....... हर शयन कक्ष के साथ दो दो ड्रेसिंग रूम्स और स्नानगृह..... चारों तरफ़ लंबे चौडे बरामदे......सात एकरोमे स्तिथ ..... ना अडोस ना पड़ोस...


मैं बेटे के कमरे मे गयी..... मन अनायास भूत कालमे दौड़ गया..... मेरे कानोमे मेरे छुट्को की आवाज़ें गूँजने लगीं........उन्ही आवाजों मे मेरी आवाज़ भी, ना जानूँ, कब मिल गयी......

"माँ!देखो तो....! इसने मेरी यूनिफार्म पे गीला तौलिया लटकाया है,"मेरी बेटी चीन्ख़ के शिक़ायत कर रही थी!

"माँ!इसने बाथरूम मे देखो, कितने बाल फैलाये हैं...!छी! इसे उठाने को कहो!" बेटा शोर मचा रहा था!


" मुझे किसी की कोई बात नही सुन नी !चलो जल्दी !स्कूल बस आने मे सिर्फ पाँच मिनट बचे हैं !उफ़! अभीतक पानी की बोतल नही ली!" मैं झुँझला उठी थी.....!


"माँ!मेरी जुराबें नही मिल रहीँ...,प्लीज़ ढूँढ दो ना",बेटा इल्तिजा कर रहा था....

"रखोगे नही जगह पे तो कैसे कुछ भी मिलेगा???" मैं चिढ़कर बोल रही थी


अंत मे जब दोनो स्कूल जाते, तो मेरी झुंझलाहट कम हुआ करती.....अब आरामसे एक प्याली चाय पी जाय !

मुझ पगली को कैसे समझा नही कि, एक बार मेरे पँछी उड़ गए, तो ना जानू, आँखें इन्हें देखने के लिए कितनी तरस जाएँगी???


अब इस कमरे मे कितनी खामोशी थी!सब जहाँ के तहाँ !चद्दर पे कहीँ कोई सिलवट नही! डेस्क पे किताबोंका बेतरतीब ढ़ेर नही !कुर्सी पर इस्त्री किये कपड़ों पर गीला तौलिया फेंका हुआ नही! अलमारी मे सबकुछ अपनी जगह!


"मेरा एकही जूता है!दूसरा कहाँ गया??मेरी टाई नही दिख रही!मेरी कम्पस मे रुलर नही है!किसने लिया??"बच्चों की ये घुली मिली आवाज़ें उस निशब्द, ख़ामोश, मौहोल मे गूँज रहीँ थीं..............

"तो मैं क्या कर सकती हूँ ???अपनी चीज़े क्यों नही सँभालते??"पलट के चिल्लानेवाली मैं, मूक खडी थी

सजे -संवरें कामरोको देख के ईर्षा करनेवाली मैं.....अब मेरे सामने ऐसाही कमरा था!

"लो, ये तुम्हारा इश्तेहारवाला कमरा"!!!मेरे मन ने मुझे उलाहना दी....!" तुम्हे यही पसंद था ना हमेशा!हाज़िर है अब ये तुम्हारे लिए! अहर रोज़ सुबह उठोगी, तो ये ऐसाही मिलेगा तुम्हे........!" मुझे सिसकियाँ आने लगी!

उस कमरे से निकल के मैं उस कमरे मे आ गयी, जो चंद दिनों पूर्व तक,बिटिया का हुआ करता था.... ..... इतने दिनोसे, पोर्टफोलियो के चक्कर मे, बिखरे हुए कागज़ात,अप्लिकेशन forms ,साथ,साथ चल रही पैकिंग..... बिखरे हुए कपडे.....अधखुली सूट केसेस ....अब कुछ भी नही था वहाँ....!

मैंने घबराकर, कमरे के दोनो लैंप जला दिए! वो कुछ मुद्दत से बडे नियम पूर्वक व्यायाम करती थी.... उसने दीवार पे कुछ आसनों के पोस्टर लगा रखे थे......केवल वही उसके अस्तित्व की निशानी...खाली ड्रेसिंग टेबल (वैसे वो कुछ भी प्रसाधन तो इस्तेमाल नही करती थी).....ड्रेसिंग टेबल पे उसके कागज़ कलम ही पडे रहते थे....

पलंग पे फेंका दुपट्टा नही....हाँ! अलमारीके पास, कोनेमे पडी, उसकी कोल्हापुरी चप्पल ज़रूर थी.... मैं सबको हमेशा बडे गर्व से कहा करती...मेरी बेटी, मेरी सहेली की तरह है,हम ख़ूब गप लडाते हैं...आपसमे हँसी मज़ाक़ करते हैं....एकदूसरेके कपडे पहेनते हैं....

मुम्बई मे रह कर भी, उसका परिधान सादगी भरा था। हाथ करघे का शलवार कुर्ता तथा कोल्हापुरी चप्पल

उन्ही दिनोंकी,एक बड़ी ही मन को गुदगुदा देनेवाली घटना याद गयी........... उसके क्लास की, study tour जानेवाली थी ..... उसने मुझे बडेही इसरार के साथ रेलवे स्टेशन चलने को कहा . .मैं भी तैयार हो गयी........ स्टेशन पोहोच ,उसने मुझे अपने क्लास के साथियों से , तथा उनके माता पिता जो वहाँ आये थे,उन सभीसे बडेही गर्व से मिलवाया। फिर मुझे शरारत भरी आँखों से देखते हुए बोली,"माँ,अब तुम्हे जाना है तो जाओ। "

"क्यों??जब आही गयी हूँ तो मैं ट्रेन छूटने तक रूक जाती हूँ!"मैंने कहा।

"नही,जाओ ना!तुम्हें क्यों लायी थी ये लॉट के बताउंगी !" उसकी आँखों मे बड़ी चमक थी

"ठीक है...तुम कहती हो तो जाती हूँ!" मैं घर चली आयी..... और उसके सफ़रसे लौटने का, इंतज़ार करने लगी। वो जब लौटी, स्टेशन वाली बात मुझे याद भी नही थी...! अपने सफ़र के बारेमे बताते हुए उसने मुझ से कहा,"माँ तुम पूछोगी नही,कि, मै तुम्हें स्टेशन क्यों ले गयी थी??"

"हाँ,हाँ बताओ,बताओ,क्यों ले गयी थी??" मैनेभी कुतूहल से पूछा!

वो बोली,"मुझे मेरे सारे क्लास को दिखाना था, कि, मेरी माँ कितनी नाज़ुक और खूबसूरत भी है! अभी तक उन्हों ने तुम्हारे talents के बारेमे ही सुन रखा था! हाँ ,तुम्हारे हाथ का खाना ज़रूर चखा था....पर तुम्हे देखा नही था!!जानती हो,जैसे ही तुम थोडी दूर गयी ,सारा क्लास मुझपे झपट पडा !सब कहने लगे ,अरे! तुम्हारी माँ तो बेहद खूबसूरत है! तुम्हारी साडी और जूडेपे भी सब मर मिटे....! "

मेरे मन मे , उस वक़्त जो खुशीकी लेहेर उठी ,उसका कभी बयाँ नही कर सकती!हर बच्चे को अपनी माँ दुनिया की , शायद सब से सुन्दर, माँ लगती होगी..... लेकिन मेरी लाडली, जिस विश्वास और अभिमान के साथ मुझे स्टेशन ले गयी थी,मुझे सच मे, अपने आप को आईने मे देखने का मन किया!

मन और अधिक भूतकाल मे दौड़ गया.... हमलोग तब भी मुम्बई मे ही थे..... बेटी ने तभी, तभी स्कूल जाना शुरू किया था...उसके लिए, स्कूल बस का इंतेज़ाम था..... एक दिन स्कूल से मुझे फ़ोन ....स्कूल बस गलती से उसे बिना लिए चली गयी थी........!

मैं तुरंत स्कूल दौड़ी .... उसे ऑफिस मे बिठाया गया था। उसके एक गाल पे आँसू एक क़तरा था.... मैंने हल्केसे उसे पोंछ डाला,तो वो बोली,"माँ!मुझे लगा,तुम जल्दी नही आओगी,इसलिये, पता नही कहाँ से, ये पानी मेरी गाल पे आ गया।"

अब पीछे मुड़कर देखती हूँ ,तो लगता है,वो एक आँसू ,उसने मुझे पेश की हुई सब से कीमती भेंट थी..... काश! उसे मैं मोती बनाके, किसी डिब्बी मे रख सकती!

कुछ दिन पहले, मैं अपने कैसेट प्लेयर पे, रफी का गाया ,"बाबुल की दुआएँ लेती जा,"गाना सुन रही थी, तो उसने झुन्ज्लाकर मुझ से कहा,"माँ!कैसे रोंदु गाने सुनती हो!इसीलिये तुम्हें डिप्रेशन होता है!"


एक और प्रसंग मुझे याद आया ..... तब हमलोग ठाने मे थे..... बिटिया की उम्र कोई छ: साल की होगी.... उसे, उस वक़्त, कुछ बडाही भयानक इन्फेक्शन हो गया।एक सौ चार -पांच तक का बुखार,मतली.... सुबह शाम इंजेक्शन लगते थे। इंजेक्शन देने डॉक्टर आते, तो नन्ही सी जान मुझे कहती,"माँ!तुम डरना मत!मुझे बिलकूल दर्द नही होता है!तुम दूसरी तरफ़ देखो..! डाक्टर अंकल जब माँ दूसरी तरफ देखे तब मुझे इंजेक्शन देना,ठीक है?"

मेरी आँखों मे आये आँसू छुपाने के लिए, मैं अपना चेहरा फेर लेती!

वो जब थोडी ठीक हुई, तो उस ने मुझसे नोट बुक तथा पेंसिल माँगी और मुझपे एक निहायत खूबसूरत निबंध लिख डाला!

उसने लिखा,"जब मैं बीमारीसे उठी तो, माँ ने मेरे बालोंमे हल्का-हल्का तेल लगाके कंघी की.... फिर चोटी बनाई... गरम पानीमे, तौलिया डुबाके बदन पोंछा..... बोहोत प्यारी खुशबु वाला,मेरी पसंद का powder लगाया.......जब मैं बीमार थी, तब वो मुझे बड़ा गंदा खाना देतीं थी..... लेकिन उसीसे तो मैं ठीक हुई!"

ऐसा..... और बोहोत कुछ! मैं ख़ुशी से फूले ना समाई! वो निबंध मैंने उसकी टीचर को पढने के लिए दिया..... वो मुझे वापस मिलाही नही! काश! मैंने उसकी इक कॉपी बनाके टीचर को दी होती! वो लेख तो एक बच्ची ने अपनी माँ को दिया हुआ अनमोल प्रशास्तिपत्रक था! एक नायाब tribute!!

अभी,अभी तक जब हम मुम्बई मे थे,वो मुझे देर रात बैठ के लंबे लंबे ख़त लिखती ,जिनमे अपने मनकी सारी भडास उँडेल देती!

पत्र के अंत मे दो चहरे बनाती,एक लिखने के पेहेलेका.... बड़ा दुखी- सा,और एक मनकी शांती पाया हुआ,बडाही
सन्तुष्ट! उसे मेरे migraine के दर्द की हमेशा चिंता रहती।

आज, हवायी अड्डे परका, उसका चेहेरा याद करती हूँ ,तो दिलमे एक कसकसी होती है!!लगता है, एकबार तो उसकी आँखों मे मुझे,मुझसे इतना दूर जाता हुए, हल्की सी नमी दिखती!......ऐसी नमी जो मुझे आश्वस्त करती के उसे अपनी माँ वहाँ भी याद आयेगी, जितनी मुम्बई से आती थी!!

काश! हवायी अड्डे परभी उसके गालपे जुदाई का सिर्फ एक आँसू लुढ़क आया होता..... जो मेरे कलेजेको ठंडक पोहोचाता ....... एक मोती, जो बरसों पेहेले मेरी इसी लाडली ने मुझे दिया था! जानती हूँ,उसका मेरे लिए लगाव,प्यार सब बरकारार है!फिरभी ,मेरे दिलने, एक आश्वासन चाहा था!

मन फिर एकबार बच्चों के बचपन मे दौड़ गया। हम उन दिनों औरंगाबाद मे थे ..... मेरा बेटा केवल दो साल का था..... बड़ा प्यारासा तुतलाता था! एक रात मेरे पीछे पड़ गया,

"माँ मुझे कहानी छुनाओ ना!," बड़े भोले पनसे मेरा आँचल खीचा। मैंने अपना आँचल छुडाते हुए कहा,"चलो अच्छे बच्चे बनके सो जाओ तो!!मुझे कितने काम करने है अभी! दादीमाको खानाभी देना है!"

"तो छोटी वाली कहानी छुना दो ना!",उसने औरभी इल्तिजा भरा सुर मे कहा।

"तुम्हे पता है ना.... वो वी विली विंकी क्या करता है.....जो बच्चे अपनी माँ की बात नही सुनते,उनकी माँ को ही वो ले जाता है...बच्चों को पीछे ही छोड़ देता है"!

कितनी भयानक बात मैंने मेरे मासूम से बच्चे को कह दी ! मुड़ के देखती हूँ तो अपनेआप को इतना शर्मिन्दा महसूस करती हूँ ,के बता नही सकती। सब कुछ छोड के एक दो मिनिट की कहानी क्यों नही सुनाई मैंने उसे?? कभी कभार ही तो वो चाहता था!

अब जब औरंगाबाद की स्मृतियाँ छा गईँ तो और एक बात याद आ गयी... ये बचपन से अंगूठा चूसता था... और मेरे परिवार वाले, पीछे पड़ जाते थे, कि, मैं उसकी आदत छुडाऊँ !मुझे ख़ूब पता था, कि, ये आदत इसतरहा छुडाये नही छूटेगी... लेकिन मैं उनके दवाव मे आही गयी

एक दिन उसे अपने पास ले बैठी और कहा,"देखो,तुम्हारी माँ अँगूठा नही चूसती,तुम्हारे बाबा नही चूसते..." आदि,आदि, अनेक लोगोंकी लिस्ट सुना दी मैंने उसे...उसने अँगूठा मूहमे से निकाला,तो मुझे लगा, वाक़ई इसपे मेरी बात का कुछ तो असर हुआ है!!अगलेही पल निहायत संजीदगी से बोला,"तो फिर उन छब को बोलो ना छूस्नेको!!"

अँगूठा वापस मूहमे और सिर फिरसे मेरी गोदी मे !! अकेलेमे भी कभी उसकी ये बात याद आती है ,तो एक आँख हँसती है एक रोती है....


अभी,अभी कालेज मे भी, रात मे अँगूठा चूसने वाला छुटका,सोनेसे पहले एक बार ज़रूर लाड प्यार करवाने के लिए मेरी गोदीमे सिर रखने वाला मेरा लाडला,परदेस रेहनेकी बात करेगा और मुझे उस से किसी भी सम्पर्क के लिए तरसना पडेगा...कभी दिमाग मे आयाही नही था....भूल गयी थी, ये पँख मैनेही इन्हें दिए हैं.........अब इनकी उड़ान पे मेरा कोई इख्तियार नही.....लेकिन दिलको कैसे समझाऊँ ??दोस्तोने फिर कहा, लोग तो बच्चे अमेरिका जाते हैं, तो मिठाई बाँटते है.....तुम्हे क्या हो गया है????"

सच मानो तो मेरा मूह कड़वा हो गया था.....!

फिर एकबार मन वर्तमान मे आ गया!!घर मे किस कदर सन्नाटा है....कंप्यूटर पे कौन बैठेगा इस बात पे झगडा नही.......खाली पडा हुआ कंप्यूटर.........कौनसा चॅनल देखना है टी.वी.पर........कोई बहस नही और कोई कुछ नही देखेगा ,कहके चिल्ला देने वाली मैं खामोश खडी....इतनी गहरी खामोशी, के, मुझ से सही नही गयी......मैंने टीवी का एक चैनल लगा दिया......मुझे घर मे कुछ तो आवाज़ चाहिए थी....मानवी आवाज़.....मेरे कितने ही छन्द थे.....लेकिन मुझे इस वक़्त, मेरे अपने, मेरे अतराफ़ मे चाहिऐ थे......


मेरे बच्चो!जानती हूँ जीवन मूल्यों मे तेज़ी से बदलाव आ रहा है....! तुम्हारी पीढी के लिए, भौगोलिक सीमा रेषाएँ, नगण्य होती जा रही हैं....!फिरभी, कभी तो इस देश मे लौट आना..... यही भूमी तुम्हारी जन्मदात्री है.... मेरी आत्माकी यही पुकार है..... इस जन्म भूमी को तुम्हीने, स्वर्ग से ना सही, अमेरिका से बेहतर बनाना है!!

मेरा आशीर्वाद तुम्हारे पीछे है ....और आँखें तुम्हारी वापसी के इंतज़ार मे!! कहीँ ये थक ना जाएँ....गगन को छू लेनेवाले मेहेल और ग़रीब माँकी कुटिया...इन की ये टक्कर है......ऐसा ना हो के, मेरे जीवन की शाम, राह तकते, तकते रात मे तबदील हो जाये....

समाप्त ।

1 टिप्पणियाँ:

परमजीत बाली said...

शमा जी,आप की इस रचना को पढ़ कर एक माँ के भीतर छुपे दर्द का एहसास होता है। ्बहुत ही सहज शब्दों में अपने दर्द को ब्या किया है।आप ने जो कमैन्ट्स किया था और जो मुक्तक पसंद किया था शायद उस का कारण भी यही अकेलेपन का एहसास रहा होगा।आप के कमैन्ट् के लिए धन्यवाद।

21 टिप्‍पणियां:

  1. समंदर पार करके अब परिंदे घर नहीं आते ,
    अगर वापस भी आते हैं तो लेकर पर नहीं आते.
    बहुत ही अच्छा लगा इसे पढ़ कर .ये ऐसा दौर है जो युवाओं को मूल्यों की बातें बेकार लगती हैं.
    अपना भविष्य उन्हें घर से बाहर दिखता है .जबकि यह बात हमें समझ लेनी चाहिए कि स्थाई पता कभी नहीं बदलता.
    नवनीत नीरव

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  2. आपकी कहानी में पूरा बचपन जी लिया मैंने.

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  3. sunayee bat aisee aankh ke aansoo palat aaye
    kisee betee kee komal yaad ke saye nazar aaye

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  4. bahut hi zyada bhavuk rachna hai..sab kuch kitna jeevant lag raha tha... ek ek baat dil me utar gayi

    par ek baat kehna chahoonga ki ye to mera bhi manna hai ki agar bache apne sapno ko poora karne ke liye naye mauke,naye desh,nayee seemaye talash kare to isme kuch bi galat nai...insan waqt ki maang ke aage majboor hai,samjhaute to honge hii

    www.pyasasajal.blogspot.com

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  5. Sajalji ko ye mera uttar hai...bachhe zaroor uden aakashme...lekin jin bachhonkee padhayee is deshke kardataaon ne jhelee hai, wo bachhe is deshke qarzdaar hain..udan bharen, lekin lautke jis deshme paida hue, useeke run chukayen...warna is deshka vichar kaun karega?

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  6. आपने तो रुला ही दिया शमा जी ! एक बार शुरू करने के बाद कोई भी बिना पढ़े नहीं रह सकता आपके संस्मरण ! बहुत सुन्दर और मार्मिक लिखती हैं आप !

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  7. आपकी इस स्मरण पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती... क्योकि न तो मैं माँ हूँ.. और नही अपनी माँ से बिछडा उसका लाडला बेटा... लेकिन अब डरता हूँ... क्योकि जॉब के लिए मुझे भी अपनी माँ की गोद से दूर जाना पड़ेगा... जॉब और पढाई शायद अब अपनों से दूर करने का कारन बन रही है. पर उसके सपनो को जीने की लिए दोनों ही जरुरी...ताकि वह ठसक से कहे - मेरा बेटा फलाना जगह नौकरी करती है... सच बच्चो को तो उसकी मुस्कान के पीछे कितने आंसू छुपे है.. पता ही नहीं चल पता, माँ माँ है...,
    आप निश्चित ही इस पोस्ट को लिखने ले बाद रोई होंगी अपने प्यारे बच्चो को याद करके.. मुझे यकीं है.. वो भी यूँ ही आपको मिस करते होंगे...

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  8. शमाजी मेरी हौसला अफजाई करने के लिए दिल से शुक्रिया ,
    आपने माँ के दर्द को जिस प्रकार शब्दों में ढालने की कोशिश की है ,वो काबिले तारीफ है ,पढ़कर बच्चों के लिए मन तड़फ उठा |पर बच्चों की खुशी और भविष्य के लिए माँ अपने दर्द को भी पी जाती है |शुभकामना सहित -----

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  9. jeevan ki ye chhoti chhoti anmol yaadein hi khushiyan deti hai.. aapne itne prem se inhe sanjo kar rakha.. padh kar bahut achcha laga.
    now i can understand more to my mom.. n will try not to hurt her.. thanx..

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  10. Apki es sansmaran ko padh kar to mai bhavuk ho gaya hoon.Ek beta ke juban se mai yahi kahta hoon ki, Maa ek aisa Ghunti hai jise mai har din pita hoon, chahe pas rahoon ya door...

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  11. Kuchh problem hai net work me..mai kisee bhee blog pe jaake comment nahee kar paa rahi hun..isliye apnehi blogpe jawab de rahee hun..
    Aap sabhi ka tahe dilse shukriya..!
    Einstein, jinhen aap jaisa beta mila ho, wo maa khushnaseeb hai..! Ummeed aur dua kartee hun, uskee khush qismatee aisee hee banee rahe!

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  12. aapki rachna bilkul diwant hai, ek ek shabd hriday mein utarta jata hai, bahut hi bhavuk rachna ..

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  13. Shama ji,
    aapka blog khul bhi gaya aur main kai ghante wahan bita bhi rahi hun, bahut hi accha laga, shayad ham auraton ka hriday ishwar ne ek saa banaya hai bahut jaldi ek doosre ki baat samajh mein aa jati hai, dukh ke fafole aapke footein thoda paani meri ankhon se bhi bah hi jayega...
    aapne mere geet suna ya nahi bataiyega kaisa laga, mujhe aapki tipanni ki pratiksha rahegi.

    sneh sahit

    'ada'

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  14. shamaji
    aapke sasmarn ne akho me pani la diya .mere bhi dono bete mujhse 12 sal dur rhe pdhai aur nokri ke liye .videsh bhi rha chota beta kitu shadi ke bad usne yhi job krne ka nirny liya aur mai ab dono beto ke sath bari bari se rhkar un chode huye salo ko jeene ka sukh utha rhi hu .
    aap bhut achha likhti hai.
    shubhkamnaye

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  15. व्यस्त युवा वालिदैन के लिए बहुमूल्य सीख है इस संस्मरण में. वक़्त एक बार हाथ से फिसल गया फिर वापस नहीं आने वाला.

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  16. Shama ji bahut hi gahri felling ko abhivyakt kiya hai aapne...aur shabd bhi bahut gahare aur shandaar hai, jo man ki gaharai me utar jate hai...

    Regards
    DevSangeet

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  17. हम भी उम्र के इस मोड पर आने ही वाले हैं, जब कि अपने पंछी उड जायेंगे. पंछियो को तो हर मौसम में अंडे देने है, मगर हमारे तो बस दो ही है. ये बात बडी ही गहराई लिये हुए है.

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  18. mein bhi do beton kaa baap hoon... sochta hoon... kya bhavishya ne kahin mere liye bhi aisa hi to nahi soch rakha hai...

    bahut hi marmik rachna hai... samvedna se bhari ui... eak maa ko uski uplavdhiyoon ke liye badhai aur bachoon ko miss karne ke liye saantwna...

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  19. sahmaji,

    " dil se kuch log hi likh sakate hai jo dil ki baat ko bejan kagaz per hub hu utar sakte hai aur vo aap ho ...sach me dil ko rone per majboor kar dete hai aapke sansmaran duva mangte hai hum ki aap isi tarah likhti rahe ...dil se"

    --http://eksacchai.blogspot.com

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